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Sunday, April 15, 2012

वो खुबसूरत मेरी अब रिहाइश नहीं रही

अब चीज़ कोई पास मेरे नाइश नहीं रही,
वो खुबसूरत मेरी अब रिहाइश नहीं रही,
जो कुछ भी पास था सब तुझपे लुटा चुका
देने की तुझे कुछ भी गुनजाइश नहीं रही,
बदनाम करना चाहा मुझे चाहत की आड़ में,
मगर मेरी चाहत अब नुमाइश नहीं रही,
खामखा दर्द दिया, निहायत तुम बुरी हो,
प्यार के सिवा मेरी और फ़रमाइश नहीं रही,
मिलने को मुझे अब मिलता बहुत कुछ है,
पर दिल में मेरे अब कोई ख्वाइश नहीं रही,
ना ढूंढ़ मेरी पलकों पर बहते आंशुयों को,
मेरी नज़रों में बारिशों की पैदाइश नहीं रही.
कि मुझको खुबसूरत साथी बहुत मिले,
तेरे शिव दिलकी दूजी च्वाइश नहीं रही,

6 comments:

  1. कमाल कर दिया आपने ...लाज़वाब रचना है

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  2. बहुत ही सुन्दर भावों को अपने में समेटे शानदार कविता...!!!

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  3. शुर्किया संजय जी और सीमा जी...

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  4. वाह....
    बहुत सुंदर गज़ल.............
    बस आखरी पंक्तियों में कुछ कमी खटकी.....(वैसे आइश पर तुक लगता कोई शब्द मुझे भी नहीं सूझ रहा...)
    :-)
    अनु

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