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Saturday, April 28, 2012

आँखों का दिया बुझा मुझमे रात रख गई

निगाहों को नम करके जज़्बात रख गई,
छुपते-छुपाते दिल में सारी बात रख गई,
इस डर से कहीं सारे भेद खुल ना जाएँ,
आँखों का दिया बुझा मुझमे रात रख गई,
पहले जखम दिया बाद मरहम भी लगाया,
फिर जानबूझ कर जख्मो पर हाँथ रख गई,
कि साथ रह रही थी जिस छत के नीचे उसपर ,
बादलों से चुरा कर बरसात रख गई.....

4 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  2. बहुत सुन्दरता से वर्णन किया है....बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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