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Saturday, December 22, 2012

उठे दर्द जब और उमड़े समंदर

लगी आग जलके, हुआ राख मंजर,
जुबां सुर्ख मेरी, निगाहें सरोवर,
 
लुटा चैन मेरा, गई नींद मेरी,
मुहब्बत दिखाए, दिनों रात तेवर,
 
सुबह दोपहर हर घड़ी शाम हरपल,
रही याद तेरी हमेशा धरोहर,
 
गिला जिंदगी से रहा हर कदम पे,
बिताता समय हूँ दिनों रात रोकर,
 
दिलासा दुआ ना दवा काम आये,
उठे दर्द जब और उमड़े समंदर.

16 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (23-12-2012) के चर्चा मंच-1102 (महिला पर प्रभुत्व कायम) पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

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    1. अनेक-२ धन्यवाद आदरणीय शास्त्री सर

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  2. बेवफा मोहब्बत का यही अफसाना है..
    दर्द ही दर्द है..संवेदनशील रचना...

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  3. बहुत उम्दा खूबशूरत गजल,,,,बधाई अरुन जी,,,,

    recent post : समाधान समस्याओं का,

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    1. धन्यवाद आदरणीय धीरेन्द्र सर

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  4. मर्म को जाहिर करती रचना अति सुन्‍दर

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  5. दिलासा दुआ ना दवा काम आये,
    उठे दर्द जब और उमड़े समंदर.

    मै इस बात से इत्तिफाक रखता हूँ। बिलकुल सोलह आने सच है।

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  6. लगी आग जलके, हुवा खाक मंज़र..,
    निगाह सुर्ख मेरी जबाँ लब-ओ-रु तर..,

    लुटा चैन मेरा, गई नींद मेरी..,
    मोहब्बत दिखाए, रोज-ओ-शब् अख्तर..,

    गिला जिन्दगी से,रहा हर कदम पे..,
    गुजरे वक्त मेरा माहो-साल रोकर..,

    लम्हा-दर लम्हा पहरो-दर-पहर..,
    रही याद तेरी, अमानत बन कर..,

    दिलासा दुआ ना दवा काम आई..,
    उठा दर्द दिल में साहिलों-समंदर.....

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    1. वाह नीतू जी वाह आपने तो रचना में चार चाँद लगा दिया शुक्रिया

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  7. कुछ ऐसा भी तमाशा कभी खुदा दिखलाये
    खुद दर्द ही दर्द की दवा बन जाए ... बेहतरीन गज़ल अरुण!

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    1. बहुत-२ शुक्रिया शालिनी जी

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