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Monday, December 24, 2012

इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता

यही देश था वीरों की गाता अद्भुत गाथा,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,

कभी यहाँ प्रेम -सभ्यता की भी बात निराली,
आज यहाँ प्रणाम नमस्ते से आगे है गाली,
इक मसीहा नहीं बचा है कौन करे रखवाली,
शहरों में तब्दील हो रहा प्रकृति की हरियाली,

आज इसी धरती पे प्राणी को प्राणी है खाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,

घटती हैं हर रोज हजारों शर्मसार घटनाएं,
काम दरिंदो से बद्तर, खुद को पुरुष बताएं,
पान सुपारी ध्वजा नारियल जो हैं रोज चढ़ाएं,
जनता का धन लूटपाट के अपना काम चलाएं,

अपना ही व्यख्यान सुनाकर फूले नहीं समाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,

होंठों पे सौ किलो चासनी दिल में पर मक्कारी,
बुरी नज़र की दृष्टि कोण से देखी जाएँ नारी,
भ्रष्टाचार ले आया है भारत में लाचारी,
अब जनता की खैर नहीं फैली अजब बिमारी,

ऐसी हालत देख खड़ा बुत भी है शर्माता, 
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,

25 comments:

  1. इसी देश की धरती पे थे जन्‍में स्‍वयं विधाता ...
    बिल्‍कुल सही कहा ... बेहतरीन अभिव्‍यक्ति

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  2. संक्रमण के इस दौर में मूल्य हीनता है जहां पसरी और वहां क्या होगा .सरकंडे की फसल लेने के बाद जलानी पड़ती है नै फसल लेने के लिए यही हाल अब देश का है अन्नत अरुण जी .बढ़िया मौजू

    प्रस्तुति है आपकी .

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    1. आदरणीय वीरेंद्र सर बहुत-२ शुक्रिया

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  3. सच ही कहा है आज विधाता भी अपनी इस रचना पर अपने आपको शर्मिंदा महसूस कर रहा होगा... अपने ही हाथों पतन की ओर तेजी से बढ़ रहा है इंसान...गंभीर रचना...

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    1. आभार संध्या दीदी आपकी टिप्पणियां उत्साह बढाती हैं

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  4. इसी देश की धरती पे थे जन्‍में स्‍वयं विधाता ...
    बेहतरीन अभिव्‍यक्ति,,,,अरुन जी,,,

    recent post : समाधान समस्याओं का,

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    1. आभार आदरणीय धीरेन्द्र सर

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  5. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार 25/12/12 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है ।

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    1. आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी

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  6. मित्र हृदय को स्पर्स करती रचना संवेदना की उंचाईयों को नए आयाम दे रही है .....बहुत सुन्दर सृजन बधाईयाँ जी

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    1. आदरणीय सर रचना आपके ह्रदय को स्पर्श कर गई एक लेखक को और इससे ज्यादा ख़ुशी की बात और क्या होगी.

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  7. बेहद शर्मनाक घटना --आपकी चिंता जायज है

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  8. अक्षरसह यथार्थ कहती रचना..

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  9. सटीक अभिव्यक्ति

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  10. सार्थक चिंतन.......

    'बीड़ा' लेकर 'पान' का ,करते थे सत्कर्म
    वहाँ 'सुपारी' चल रही , मिटी आँख से शर्म
    मिटी आँख से शर्म , लगाते हैं सब 'चूना'
    'झूठ-हाट' में भीड़,'सत्य' का आंगन सूना
    कोई ऐसा नहीं , सुनायें जिसको पीड़ा
    करने को सत्कर्म , उठायें आओ बीड़ा ||

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    1. आदरणीय अरुण सर रचना पर इतनी शानदार कुण्डलियाँ पाकर ह्रदय को जिस सुख की अनुभूति हुई है, शब्दों में बयां नहीं कर सकता हूँ ह्रदय के अन्तः स्थल से आभार.

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  11. गंभीर रचना बिल्‍कुल सही

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  12. भ्रष्टाचार ले आया है भारत में लाचारी,
    अब जनता की खैर नहीं फैली अजब बिमारी,
    सच है इस भ्रष्टाचार ने मुल्क के निजाम को खराब कर रखा है। इतना पहले नही था जितना अब हो गया है।

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  13. बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति...!

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  14. "होटों पै सौ किलो चासनी दिल में पर मक्कारी ..."
    सही भी ..सटीक भी ..सार्थक भी

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