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Saturday, April 27, 2013

दोहे


ओपन बुक्स ऑनलाइन ,चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, अंक-२५ में मेरी रचना 




दोहे 

भीतर से घबरा रहा, मन में जपता राम ।
किसी तरह हे राम जी, आज बना दो काम ।।

दुबला पतला जिस्म है, सीना रहा फुलाय ।
जैसे तैसे हो सके, बस भर्ती हो जाय ।।

डिग्री बी ए की लिए, दुर्बल लिए शरीर ।
खाकी वर्दी जो मिले, चमके फिर तकदीर ।।

सीना है आगे किये, भीतर खींचे साँस ।
हाँथ लगे ज्यों सींक से, पाँव लगे ज्यों बाँस ।।

इक सीना नपवा रहा, दूजा है तैयार ।
खाते जैसे हैं हवा, लगते हैं बीमार ।।

खाकी से दूरी भली, कडवी इनकी चाय ।
ना तो अच्छी दुश्मनी, ना तो यारी भाय ।।

बिगड़ी नीयत देखके सौ रूपये का नोट ।
भोली सूरत ले फिरें, रखते मन में खोट ।।

7 comments:

  1. शुभ संध्या
    भीतर से घबरा रहा, मन में जपता राम ।
    किसी तरह हे राम जी, आज बना दो काम ।।

    अंतिम अरदास....
    बन जाए काम
    तो हो जाए दास.......

    सादर

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  2. सुन्दर संदेस देते बेहतरीन दोहे,आभार मित्रवर.

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  3. वाह .. सटीक हैं सभी दोहे अरुण जी .... बहुत उम्दा ...

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