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Wednesday, April 24, 2013

कविता : मैं रसिक लाल- तुम फूलकली

मैं शुष्क धरा, तुम नम बदली.
मैं रसिक लाल, तुम फूलकली.

तुम मीठे रस की मलिका हो,
मैं प्रेमी थोड़ा पागल हूँ.
तुम मंद - मंद मुस्काती हो,
मैं होता रहता घायल हूँ.

तुमसे मिलकर तबियत बदली.
मैं रसिक लाल, तुम फूलकली.

जब ऋतु बासंती बीत गई,
तब तेरी मेरी प्रीत गई.
तुम मुरझाई मैं टूट गया,
मौसम मतवाला रूठ गया.


नैना भीगे, मुस्कान चली
मैं रसिक लाल, तुम फूलकली..

12 comments:

  1. जब ऋतु बासंती बीत गई,
    तब तेरी मेरी प्रीत गई.
    तुम मुरझाई मैं टूट गया,
    मौसम मतवाला रूठ गया....
    क्या बात है अरुण जी ... रस के जाते ही प्रीत गई ...
    सही कहा गया है ...

    'सखी रस के लोभी होते हैं ये सजन सारे'

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  2. आपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
    कृपया पधारें

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  3. वाह! बहुत प्यारा गीत...

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  4. प्रेम,प्यार का सुखद अहसास
    सुंदर अनुभूति
    उत्कृष्ट प्रस्तुति

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों

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  5. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति मित्रवर,आभार.

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  6. मैं शुष्क धरा, तुम शीतल बदली..,
    मैं रसिक लला तुम फूलकली.....

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  7. जब ऋतु बासंती बीत गई,
    तब तेरी मेरी प्रीत गई...बहुत खूब ..रसिक लाल होते है ऐसे हैं.... ..

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  8. मैं नीर भरी दुःख की बदली का रोमांटिक संस्करण -मैं शुष्क धरा, तुम नम बदली.
    मैं रसिक लाल, तुम फूलकली.

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  9. रोमांच और पुलक दोनों हैं इस रचना में .शुक्रिया हमें चर्चा मंच में न्योतने का .

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  10. बड़ी दिलचस्प रचना है यार ,बार बार पढ़ी।

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