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Saturday, September 29, 2012

यादें तेरी गोदी में जब झुलाती हैं

नदियाँ कितनी -- आँखें मेरी बहाती हैं,
यादें तेरी गोदी में - - - जब झुलाती हैं,
 

थोड़ी-थोड़ी अब भी - उम्मीद है बाकी,
आजा तुझको साँसे - - मेरी बुलाती हैं,
 

बहता दरिया है- आफत का लहू बनके,
जब भी उलझन -- बातें तेरी बढ़ाती हैं,
 

सारे मेरे - - बेचैनी से --- भरे हैं दिन,
करवट - करवट में - रातें बीत जाती हैं,
 

बन गम मुझमें, बहता है प्रेम का सागर,
लहरें जीवन की -- जलती लौ बुझाती हैं,
 

होता मेरे है - - - जख्मों में - दर्द ज्यादा,
जब-
जब काँटा -- - चीज़ें तेरी चुभाती हैं.

15 comments:

  1. वाह ... बहुत खूब।

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  2. बन गम मुझमें, बहता है प्रेम का सागर,
    लहरें जीवन की -- जलती लौ बुझाती हैं,

    KYA BAT HAE

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (30-09-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    सूचनार्थ!

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    1. आदरणीय शास्त्री सर तहे दिल से शुक्रिया

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  4. सुंदर रचना |
    इस समूहिक ब्लॉग में पधारें और इस से जुड़ें |
    काव्य का संसार

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  5. बहुत सुंदर !!
    यादों के झूले पडे़ हैं
    तुम चले आओ
    इसको झूलना है
    झुलाओ और झुलाओ !

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  6. शुक्रिया ओंकार सर

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  7. शुक्रिया रश्मि जी

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  8. वाह! बहुत खूब लिखा है....
    तेरे खत को जो अपनी किताब में हमने पाया
    मिले थे पहले पहल वो जमाना याद आया....

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    1. वाह शालिनी जी आपका जवाब नहीं बहुत ही उम्दा शेर है क्या बात है शुक्रिया

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