ये लौ बुझनी है साँसों की,
जल-2 कर तन के चूल्हों में,
सोने-चाँदी का क्या करना,
इक दिन मिलना है धूलों में,
काँटों से डर कर क्यूँ जीना,
जी भर सोना है फूलों में,
सबके कंधे झुक जाते हैं,
जब कर बढ़ता है मूलों में,
हर पल जीता है मरता है,
झूले जो दिल के झूलों में,
कथ्य शिल्प सबकुछ बेजोड़-
ReplyDeleteसम्पूर्ण रचना -
बधाई अरुण ||
आपको प्रणाम, बहुत-2 शुक्रिया आदरणीय रविकर सर
Deleteवाह ... बेहतरीन
ReplyDeleteबहुत-२ शुक्रिया सदा जी
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ReplyDeleteसबके कंधे झुक जाते हैं,
जब कर बढ़ता है मूलों में...........
बहुत बढ़िया जी
बहुत-२ शुक्रिया उपासना जी
Deleteसुंदर भाव... http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com पर भी आना।
ReplyDeleteशुक्रिया संदीप जी
Deleteसबके कंधे झुक जाते हैं,
ReplyDeleteजब कर बढ़ता है मूलों में, waah
ये लौ बुझनी है साँसों की,
ReplyDeleteजल-2 कर तन के चूल्हों में,
बहुत प्यारी पंक्तियाँ.... सुन्दर भाव!
तहे दिल से शुक्रिया शालिनी जी
Deleteआपकी रचनाएँ बहुत ही बेहतरीन होती है..
ReplyDeleteसुन्दर..
:-)
आपका धन्यवाद रीना जी
Deletebahut badhiya!
ReplyDeleteशुक्रिया अल्पना जी
Deleteबढ़िया लिखते हो अरुण ...
ReplyDeleteबधाई !
बहुत-२ शुक्रिया सतीश सर
Deleteकाँटों से डर कर क्यूँ जीना,
ReplyDeleteजी भर सोना है फूलों में,
.................wah arun bhai dar kar jeene bhi kya jeena hai........behtreen likha hai bhai
तहे दिल से शुक्रिया संजय भाई
Deleteसबके कंधे झुक जाते हैं,
ReplyDeleteजब कर बढ़ता है मूलों में,
हर पल जीता है मरता है,
झूले जो दिल के झूलों में,
bahut khoob....
धन्यवाद पूनम जी
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