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Saturday, December 8, 2012

कारवाँ ठंडी हवा का

कारवाँ ठंडी हवा का आ गया है।
धुंध हल्का कोहरा भी छा गया है।। 1
 
राह नज़रों को नहीं आती नज़र अब।
कौन है जो रास्तों को खा गया है।। 2
 
पांव ठंडे, हाँथ ठंडे - थरथराते।
जान पर जुल्मी कहर बरसा गया है।। 3
 
पास घर दौलत नहीं रोटी न कपड़े।
कुछ नसीबा मुश्किलों को भा गया है।। 4
 
घिर रही घनघोर काली है घटा फिर।
वर्फबारी कर ग़ज़ब रब ढा गया है।। 5
 
बोल बाला मर्ज का फिर से जगा है।
सर्द सोया दर्द भी भड़का गया है।। 6

10 comments:

  1. घिर रही घनघोर काली है घटा फिर।
    वर्फबारी कर ग़ज़ब रब ढा गया है।। 5
    behatreen

    बेहतरीन आनुप्रासिक प्रस्तुति .शुक्रिया आपकी स्नेह पूर्ण टिपण्णी का .दिनानुदिन निखार पर हैं शबाब पर हैं आपकी गजलें माशूकाएं .आशिकी .

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    1. आदरणीय वीरेंद्र सर सराहना व आशीष हेतु अनेक-2 धन्यवाद

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  2. घिर रही घनघोर काली है घटा फिर
    वर्फबारी कर ग़ज़ब रब ढा गया है...

    बहुत खूब अरुण जी ... लाजवाब शेर है इस गज़ल का ... सुन्दर प्रयोग बर्फ़बारी का ..

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    1. अनेक-2 धन्यवाद दिगम्बर सर

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  3. आपके ठंडी हवा का कारवाँ बहुत बढियां है..
    बेहतरीन गजल...
    :-)

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  4. एक और गजब की गजल। 4 व 5 न. शेर तो कमाल के हैं।

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