ग़ज़ल :
बह्र : रमल मुसम्मन महजूफ
मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की,
टूट कर दो भाग में बँटती नहीं इक जिंदगी.
हम गलतफहमी मिटाने की न कोशिश कर सके,
कुछ समय का दोष था कुछ आपसी नाराजगी,
आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,
यूँ धराशायी नहीं ये स्वप्न होते टूटकर,
आखिरी क्षण तक नहीं बहती ये नैनों की नदी,
रात भर करवट बदलना याद करना रात भर,
एक अरसे से यही करवा रही है बेबसी.........
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अरुन शर्मा अनन्त
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बह्र : रमल मुसम्मन महजूफ
मध्य अपने आग जो जलती नहीं संदेह की,
टूट कर दो भाग में बँटती नहीं इक जिंदगी.
हम गलतफहमी मिटाने की न कोशिश कर सके,
कुछ समय का दोष था कुछ आपसी नाराजगी,
आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,
यूँ धराशायी नहीं ये स्वप्न होते टूटकर,
आखिरी क्षण तक नहीं बहती ये नैनों की नदी,
रात भर करवट बदलना याद करना रात भर,
एक अरसे से यही करवा रही है बेबसी.........
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अरुन शर्मा अनन्त
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अरे वाह प्रेममय नाम
ReplyDeleteबढ़िया गजल के लिए बधाइयाँ
बहुत सुंदर गजल अरुन ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteआज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
ReplyDeleteकल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,...
बहुत ही खूबसूरत शेर है इस गज़ल का ... आफरीन ... आफरीन ...
आज क्यों इतनी कमी खलने लगी है आपको,
ReplyDeleteकल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी,
वाह, प्रेम के साथ साथ सामाजिक सरोकार से जुडा है ये आपकी गज़ल।
बहुत सुंदर....
ReplyDeleteउम्दा ..
ReplyDeleteउम्दा ग़ज़ल ...बहुत खूब
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