मुग्धकारी भाव आखर अब कहाँ,
प्रेम निश्छल वह परस्पर अब कहाँ,
मात गंगा का किया आँचल मलिन,
स्वच्छ निर्मल जल सरोवर अब कहाँ,
रंग त्योहारों का फीका हो चला,
सीख पुरखों की धरोहर अब कहाँ,
सभ्यता सम्मान मर्यादा मनुज,
संस्कारों का वो जेवर अब कहाँ,
सांझ बोझिल दिन ब दिन होती गई,
भोर वह सुखमय मनोहर अब कहाँ...
प्रेम निश्छल वह परस्पर अब कहाँ,
मात गंगा का किया आँचल मलिन,
स्वच्छ निर्मल जल सरोवर अब कहाँ,
रंग त्योहारों का फीका हो चला,
सीख पुरखों की धरोहर अब कहाँ,
सभ्यता सम्मान मर्यादा मनुज,
संस्कारों का वो जेवर अब कहाँ,
सांझ बोझिल दिन ब दिन होती गई,
भोर वह सुखमय मनोहर अब कहाँ...
बहुत बढ़िया..
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर सार्थक प्रस्तुति!!!
ReplyDeleteसभ्यता सम्मान मर्यादा मनुज,
ReplyDeleteसंस्कारों का वो जेवर अब कहाँ,..
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल .. भाषा, दर्शन का भाव लिए हर शेर उत्तम ...
बहुत सुन्दर मित्रवर क्या बात है जय हो
ReplyDeleteजिन्दाब्द
सभ्यता सम्मान मर्यादा मनुज,
ReplyDeleteसंस्कारों का वो जेवर अब कहाँ,..
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल