यही देश था वीरों की गाता अद्भुत गाथा,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
कभी यहाँ प्रेम -सभ्यता की भी बात निराली,
आज यहाँ प्रणाम नमस्ते से आगे है गाली,
इक मसीहा नहीं बचा है कौन करे रखवाली,
शहरों में तब्दील हो रहा प्रकृति की हरियाली,
आज इसी धरती पे प्राणी को प्राणी है खाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
घटती हैं हर रोज हजारों शर्मसार घटनाएं,
काम दरिंदो से बद्तर, खुद को पुरुष बताएं,
पान सुपारी ध्वजा नारियल जो हैं रोज चढ़ाएं,
जनता का धन लूटपाट के अपना काम चलाएं,
अपना ही व्यख्यान सुनाकर फूले नहीं समाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
होंठों पे सौ किलो चासनी दिल में पर मक्कारी,
बुरी नज़र की दृष्टि कोण से देखी जाएँ नारी,
भ्रष्टाचार ले आया है भारत में लाचारी,
अब जनता की खैर नहीं फैली अजब बिमारी,
ऐसी हालत देख खड़ा बुत भी है शर्माता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
कभी यहाँ प्रेम -सभ्यता की भी बात निराली,
आज यहाँ प्रणाम नमस्ते से आगे है गाली,
इक मसीहा नहीं बचा है कौन करे रखवाली,
शहरों में तब्दील हो रहा प्रकृति की हरियाली,
आज इसी धरती पे प्राणी को प्राणी है खाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
घटती हैं हर रोज हजारों शर्मसार घटनाएं,
काम दरिंदो से बद्तर, खुद को पुरुष बताएं,
पान सुपारी ध्वजा नारियल जो हैं रोज चढ़ाएं,
जनता का धन लूटपाट के अपना काम चलाएं,
अपना ही व्यख्यान सुनाकर फूले नहीं समाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
होंठों पे सौ किलो चासनी दिल में पर मक्कारी,
बुरी नज़र की दृष्टि कोण से देखी जाएँ नारी,
भ्रष्टाचार ले आया है भारत में लाचारी,
अब जनता की खैर नहीं फैली अजब बिमारी,
ऐसी हालत देख खड़ा बुत भी है शर्माता,
इसी देश की धरती पे थे जन्मे स्वयं विधाता,
इसी देश की धरती पे थे जन्में स्वयं विधाता ...
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा ... बेहतरीन अभिव्यक्ति
संक्रमण के इस दौर में मूल्य हीनता है जहां पसरी और वहां क्या होगा .सरकंडे की फसल लेने के बाद जलानी पड़ती है नै फसल लेने के लिए यही हाल अब देश का है अन्नत अरुण जी .बढ़िया मौजू
ReplyDeleteप्रस्तुति है आपकी .
आदरणीय वीरेंद्र सर बहुत-२ शुक्रिया
Deleteसच ही कहा है आज विधाता भी अपनी इस रचना पर अपने आपको शर्मिंदा महसूस कर रहा होगा... अपने ही हाथों पतन की ओर तेजी से बढ़ रहा है इंसान...गंभीर रचना...
ReplyDeleteआभार संध्या दीदी आपकी टिप्पणियां उत्साह बढाती हैं
Deleteइसी देश की धरती पे थे जन्में स्वयं विधाता ...
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति,,,,अरुन जी,,,
recent post : समाधान समस्याओं का,
आभार आदरणीय धीरेन्द्र सर
Deleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार 25/12/12 को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है ।
ReplyDeleteआभार आदरणीया राजेश कुमारी जी
Deleteमित्र हृदय को स्पर्स करती रचना संवेदना की उंचाईयों को नए आयाम दे रही है .....बहुत सुन्दर सृजन बधाईयाँ जी
ReplyDeleteआदरणीय सर रचना आपके ह्रदय को स्पर्श कर गई एक लेखक को और इससे ज्यादा ख़ुशी की बात और क्या होगी.
Deleteबेहद शर्मनाक घटना --आपकी चिंता जायज है
ReplyDeleteआभार अजय कुमार जी
Deleteअक्षरसह यथार्थ कहती रचना..
ReplyDeleteशुक्रिया रीना जी
Deleteसटीक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआभार वंदना जी
Deleteसार्थक चिंतन.......
ReplyDelete'बीड़ा' लेकर 'पान' का ,करते थे सत्कर्म
वहाँ 'सुपारी' चल रही , मिटी आँख से शर्म
मिटी आँख से शर्म , लगाते हैं सब 'चूना'
'झूठ-हाट' में भीड़,'सत्य' का आंगन सूना
कोई ऐसा नहीं , सुनायें जिसको पीड़ा
करने को सत्कर्म , उठायें आओ बीड़ा ||
आदरणीय अरुण सर रचना पर इतनी शानदार कुण्डलियाँ पाकर ह्रदय को जिस सुख की अनुभूति हुई है, शब्दों में बयां नहीं कर सकता हूँ ह्रदय के अन्तः स्थल से आभार.
Deleteगंभीर रचना बिल्कुल सही
ReplyDeleteआभार आदरणीया मधु जी
Deleteभ्रष्टाचार ले आया है भारत में लाचारी,
ReplyDeleteअब जनता की खैर नहीं फैली अजब बिमारी,
सच है इस भ्रष्टाचार ने मुल्क के निजाम को खराब कर रखा है। इतना पहले नही था जितना अब हो गया है।
बिलकुल आमिर भाई
Deleteबहुत प्रभावशाली प्रस्तुति...!
ReplyDelete"होटों पै सौ किलो चासनी दिल में पर मक्कारी ..."
ReplyDeleteसही भी ..सटीक भी ..सार्थक भी