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Sunday, October 13, 2013

बँधी भैंसें तबेले में

ग़ज़ल
बह्र : हज़ज़ मुरब्बा सालिम
1222 , 1222 ,
.........................................................
बँधी भैंसें तबेले में,
करें बातें अकेले में,

अजब इन्सान है देखो,
फँसा रहता झमेले में,

मिले जो इनमें कड़वाहट,
नहीं मिलती करेले में,


हुनर जो लेरुओं में है,
नहीं इंसा गदेले में,


भले हम जानवर होकर,
यहाँ आदम के मेले में,

गुरु तो हैं गुरु लेकिन,
भरा है ज्ञान चेले में..

10 comments:

  1. बहुत खूब
    व्यंग और ज्ञान साथ साथ

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (14-10-2013) विजयादशमी गुज़ारिश : चर्चामंच 1398 में "मयंक का कोना" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सुंदर प्रस्तुति !
    विजयादशमी की शुभकामनाए...!

    RECENT POST : - एक जबाब माँगा था.

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  4. सच ही बतियाती हैं भैंसे

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  5. मिले जो इनमें कड़वाहट,
    नहीं मिलती करेले में, ..

    आज के इन्सान का सही विश्लेषण है इस शेर में .... लाजवाब रचना छोटी बहर में ..

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  6. वाह..वाह...वाह...सुन्दर भाव... बधाई...

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  7. aaj ke halat ke sandarv me behud suthri prastuti...

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  8. वाह || बहुत बेहतरीन गजल...
    :-)

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