ग़ज़ल
१२२२, १२२२, १२२२, १२२२,
बह्र : हजज मुसम्मन सालिम
कभी सच्ची मुहब्बत को दिवाने दिल नहीं पाते,
यहाँ पत्थर बहुत रोया वहां आंसू नहीं आते,
रजा मेरी जुदा ठहरी रजा उसकी जुदा ठहरी,
मुझे कलियाँ नहीं जँचती उसे कांटे नहीं भाते,
डरा सहमा रहेगा उम्रभर ये दिल मेरा यूँ ही,
तेरी फितरत से वाकिफ जबतलक हम हो नहीं जाते,
चली है याद फिर मेरी उड़ाने नींद रातों की,
जगे हैं नैन जबसे ख्वाब के बादल नहीं छाते,
मुकम्मल इश्क की कोई कहानी कब हुई यारों,
नहीं लैला नहीं मजनू नहीं रिश्ते नहीं नाते..
१२२२, १२२२, १२२२, १२२२,
बह्र : हजज मुसम्मन सालिम
कभी सच्ची मुहब्बत को दिवाने दिल नहीं पाते,
यहाँ पत्थर बहुत रोया वहां आंसू नहीं आते,
रजा मेरी जुदा ठहरी रजा उसकी जुदा ठहरी,
मुझे कलियाँ नहीं जँचती उसे कांटे नहीं भाते,
डरा सहमा रहेगा उम्रभर ये दिल मेरा यूँ ही,
तेरी फितरत से वाकिफ जबतलक हम हो नहीं जाते,
चली है याद फिर मेरी उड़ाने नींद रातों की,
जगे हैं नैन जबसे ख्वाब के बादल नहीं छाते,
मुकम्मल इश्क की कोई कहानी कब हुई यारों,
नहीं लैला नहीं मजनू नहीं रिश्ते नहीं नाते..